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कविता

राजघाट पर घूमते हुए

विमलेश त्रिपाठी


दूर-दूर तक फैले इस परती में
तुम्हारी बेचैन आत्मा
पोसुए हरिनों की तरह नहीं भटकी?

कर्मठ चमड़ी से चिपटी तुम्हारी सफेद इच्छाएँ
मुक्ति की राह खोजते हुए
जल कर राख हो गयीं
चन्दन की लकड़ी और श्री ब्रांड घी में
और किसी सफेदपोश काले आदमी के हाथों
पत्थरों की तह में गाड़ दी गयीं मन्त्रों के गुंजार के साथ
...पाक रूह तुम्हारी काँपी नहीं?

अच्छा, एक बात तो बताओ पिता
विदेशी कैमरों के फ्लैश से
चौंधिया गयीं तुम्हारी आँखें
क्या देख पा रही हैं मेरा
या मेरे जैसे करोड़ों लोगों के ढठिआये हुए चेहरे?

तुम्हारी पृथ्वी के नक्शे को नंगा कर
सजा दिया गया
तुम्हारी नंगी तस्वीरों के साथ
और सज गयी
तुम्हें डगमड चलाने वाली कमर घड़ी
(तुम्हारी चुनौती)
रुक गयी।
और रुक गया सुबह का चार बजना...?

और पिता
तुम्हारे सीने से निकले लोहे से नहीं
मुँह से निकले राम से
बने लाखों हथियार
जिबह हुए कितने निर्दोष
क्या दुःख नहीं हुआ तुम्हें...?

शहर में हुए
हर हत्याकाण्ड के बाद
पूरे ग्लैमर के साथ गाया गया
'रघुपति राघव राजा राम'
माथे पर तुम्हारे
चढ़ाया गया
लाल-सफेद फूलों का चूरन
बताओ तुम्हीं करोड़ों-अरबों के जायज पिता
आँख से रिसते आँसू
पोंछे किसी लायक पुत्र ने?

तुम्हारे चरखे की खादी
और तुम्हारे नाम की टोपी
पहन ली सैकड़ों ने
कितने चले
तुम्हारे टायर छाप चप्पलों के पीछे...?

 


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